कई दिनों से प्रोफ़ेसर की कोई ख़बर नहीं मिली। पिछली बार उनके अध्ययन-कक्ष में जिस प्रोजेक्ट की स्लाइड्स देखी थीं, वे अभी तक मेरी आंखों के सामने घूम रही हैं। उस प्रोजेक्ट के बारे में आगे जानने की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। कई बार उनके घर के चक्कर लगा आया। उन्हें ई-मेल भी किया मग़र उनका जवाब नहीं आया। यह कितनी अजीब बात है कि मिस्टर प्रोफ़ेसर संचार-प्रणाली की तमाम अत्याधुनिक सुविधाओं का उपयोग करते हैं लेकिन मोबाइल फ़ोन नहीं रखते। मोबाइल के बारे में उनका मानना है कि यह एक ‘क्लैवर हैकर’ है जिसने लोगों की प्राइवेट लाइफ़ को बुरी तरह हैक़ कर रखा है और वे इस बदमाश हैकर के झांसे में आने वाले नहीं।
उनसे संपर्क का एक ही जरिया है उनका ई-मेल। हांलाकि वे स्काइप और हैंग-आउट जैसी सुविधाओं का भी बख़ूबी प्रयोग करते हैं लेकिन इन दिनों वहां भी नहीं दिखे। इन-बॉक्स देखता हूं शायद कोई क़ामयाबी मिले। लीजिए, उनका मेल आ ही गया। अरे, कुछ अटैचमेंट भी है। देखूं, क्या भेजा है। किसी फटी-पुरानी किताब के पन्ने मालूम होते हैं। पिछली मुलाक़ात में प्रोफ़ेसर ने बताया था कि वे चम्बल के बीहड़ों की छान-बीन करने का इरादा रखते हैं।
वे शेखर कपूर की फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ से बहुत प्रभावित थे। लेकिन उन्हें धूलिया की फ़िल्म पानसिंह तोमर कुछ ख़ास पसंद नहीं आयी थी। उनका मानना था कि पानसिंह तोमर से ज़्यादा ग्लैमरस और बिल्कुल आज के दौर की सेंसिबिलिटीज़ से कनेक्ट करने वाला डाकू है ‘डाकू अमृतलाल’। उन्होंने बताया था कि चम्बल में डाकू अमृतलाल के कारनामों का अलग ही जलवा रहा है। अपने दौर में वह ‘दिल्ली वाला बाबू’ नाम से मशहूर था। वह पुलिस का भेस बदलकर बड़े-बड़े अधिकारियों को चकमा देने में माहिर था। चम्बल का यह अकेला डाकू था जिसने बीहड़ के बाहर की मेट्रोपोलिस रंगीनियों के जमकर मज़े उड़ाये था। आज के दौर की फ़िल्म के लिए वह एक कम्प्लीट मसाला-क़िरदार है।
प्रोफ़ेसर ने यह भी बताया था कि वह एक फ़िल्म की स्क्रिप्ट के लिए अमृतलाल की ज़िदगी पर रिसर्च करने का इरादा रखते हैं और कुछ काम उन्होंने कर भी लिया है। काम पूरा होने पर वे किसी व्यावसायिक पटकथा-लेखक को एप्रोच करेंगे। उन्होंने उस स्लाइड-शो में उस दिन अमृतलाल के दौर की कुछ न्यूज़पेपर कटिंग्स भी दिखाई थीं। उनका यह नया प्रोजेक्ट वाक़ई रोमांचक जान पड़ता है।
सारे पन्ने डाउनलोड कर लिए हैं। अब इन्हें किसी फोटो-एडीटर पर चमकाकर पढ़ने योग्य भी बनाना होगा। लेकिन इस फटी-पुरानी किताब के लेखक का नाम नहीं दिखाई दे रहा कहीं। प्रोफ़ेसर से पूछने पर उनका जवाब आ रहा है कि यह किताब उन्हें मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में स्थित छोटे से क़स्बे कोलारस के एक हलवाई की दुकान से मिली है.. किताब के शुरु और आखि़र के पन्ने ग़ायब हैं..सो फिलहाल तो नाम नहीं है, लेकिन जल्दी ही कोई न कोई सुराग मिल जाएगा..।
बहरहाल,
डाकू अमृतलाल के कुछ कारनामे…
[to be continued..]
कहानी में ट्वीट्स तो है,पर ई-मेल के बहाने कहानी का फ़िल्मी विषय में पहुँच जाना,फिर फ़िल्म की कथा-वस्तु
का विश्लेषण कहानी को यथार्थ की भूमि से काटकर कृत्रिमता की ओर ले जाता है.क्या कहानी फिल्मी कथा-वस्तु
का विश्लेषण मात्र है या उस दौर की सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक तथा अन्य पहलुओं का विश्लेषण-संश्लेषण?