4/ ट्रेन टु चम्बल

समय: 7.15 प्रात:
स्टेशन : हज़रत निज़ामुदीन, दिल्ली
ट्रेन : ताज एक्सप्रेस
सीट नं. 18, चेयर कार

स्टेशन का वही चिर-परिचित दृश्य। सामान ढोते कुली। अपनी सीट खोजते यात्री। रेलों के आने-जाने की एनाउन्समेंट। हर तरफ़ चहल-पहल। चेतना में यह दृश्य इतना स्थायी हो गया है कि लगता ही नहीं कि कभी वो दिन भी रहे होंगे जब न ये ट्रेनें थीं न ये स्टेशन। इंजिन ने आवाज़ दी और ट्रेन चल पड़ी। मन पर चम्बल की कल्पना इस क़दर हावी थी कि एक पल को तो लगा जैसे मैं ट्रेन में नहीं नाव में बैठा हूं। लेकिन दूसरे ही पल अपने इस खयाल पर मुझे हंसी भी आ गयी। हांलाकि अब डाकुओं की ख़ूनी रंजिशों और पुलिस की मुटभेड़ों का दौर नहीं रहा, फिर भी चम्बल के बारे में नौका-विहार जैसे रोमानी ख़्याल की कल्पना एक ख़ौफ़ भरा ख़याल ही है। जो भी हो, प्रोफ़ेसर की तरह मुझे भी इस उधेड़बुन से एक सूत्र मिल गया है-खौफ़ और रोमान्स दोनों ही एक अनिश्चय भरे आकर्षण को जन्म देते हैं।

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आकर्षण से प्रोफ़ेसर की प्रेमिका की याद आ गयी। प्रोफ़ेसर के अध्ययन-कक्ष में हस्ताक्षर करती उनकी उंगलियां सचमुच आकर्षक थीं। बैग से उनका कविता-संग्रह निकाला। इस ख़याल से कि मैंने उन्हें कहा था कि उनकी कविताओं पर प्रतिक्रियां दूंगा, मैं कुछ कविताएं पढ़ने लगा। कविताएं पुरुषों के समाज में अन्याय की शिकार औरतों के प्रतिरोध से भरी थीं। पढ़ते-पढ़ते एक कविता पर आंख ठहर गयी। कविता बैंडिट क्वीन’ फूलन देवी को उसके गांव में निर्वस्त्र घुमाए जाने की घटना पर केन्द्रित थी। कविता में इस तर्क को अत्यंत बारीक़ी से स्थापित किया गया था कि पितृसत्ता के पास स्त्री के लिए सबसे कठोर सज़ा है उसको सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर देना। कविता में फूलन देवी के निर्वस्त्र किए जाने को द्रौपदी के चीर-हरण से जोड़कर देखा गया था। कविता के अन्त में फूलन देवी के गांव का समाज कौरवों की सभा में बदल रहा है और फूलन देवी द्रौपदी के रूप में बन्दूक उठाए चम्बल के किनारे खड़ी है। यह जानकर मेरा मन एक ख़ास तरह के आदर-भाव से भर गया कि प्रोफ़ेसर की प्रेमिका जितनी सुन्दर है उतनी ही बौद्धिक और संवेदनशील भी।

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ट्रेन पहले हरियाणा में दाख़िल हुई, फिर उत्तरप्रदेश में और फिर राजस्थान में। किसी ने बताया कि धौलपुर आने वाला है। मैंने अपना कैमरा तैयार किया और बोगी के दरवाजे़ पर आ गया। जैसा कि प्रोफ़ेसर ने संकेत किया था, धौलपुर क्रोस होते ही चम्बल के ख़तरनाक़ बीहड़ शुरु होने लगे थे। जहां तक नज़र की पहुंच थी मिट्टी के विशाल ढूहों का अनन्त क्रम..। मैंने धड़ाधड़ तस्वीरें लेना शुरू कर दिया। दूर तक धूप में चिलकते चम्बल के ये ढूह किसी खोई हुई सभ्यता का पता देते से मालूम पड़ते थे। मिट्टी के पोर-पोर में धंसी धूप इतनी पारदर्शी और स्निग्ध थी कि हवा आराम से सांस ले रही थी।

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थोड़ी ही देर में चम्बल नदी का विशाल पाट दिखाई देने लगा था। दोनों किनारों पर फैला आसमानी जल। स्थिर और स्तब्ध। नदी में पानी बहुत नहीं था। जहां तक था उससे आगे की ज़मीन पर खेती हो रही थी। ज़मीन के कुछ हिस्सों पर पीली सरसों का सुन्दर विस्तार था। कुछ हिस्सों की जुताई हो चुकी थी और बीज बोए जाने के लिए तैयार थे। मिट्टी के धूसर टीलों में पसरी वीरानी के बीच नदी का आसमानी जल और  संरसों का यह पीलापन मुझ पर एक जादुई फैंटेसी की तरह खुल रहा था। दूर एक छोटा सा मंदिर दिखाई दे रहा था जिसकी लाल पताका किसी रहस्यमय आमंत्रण का संकेत जान पड़ रही थी। पूरा परिदृश्य एक विचित्र से आकर्षण में बांध रहा था। दिल ने चाहा कि ट्रेन की चेन खींच दूं और दौड़कर इन बीहड़ों की भूल-भुलैया में ओझल हो जाउं। मग़र डाकू। डाकुओं की बंदूक के ख़ौफ़ ने चम्बल और उसके बीहड़ों का आकर्षण धूल में मिला दिया।

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चम्बल नदी क्रोस करने के बाद 10 मिनिट बीत चुके हैं। प्रोफ़ेसर के मुताबिक मुझे अपने ट्रंक के साथ बोगी के दरवाज़े पर होना चाहिए। दरवाजे़ के पीले हैंडिल पकड़कर देख रहा हूं कि मुरेना स्टेशन का दृश्य हूबहू वैसा ही है जैसा प्रोफे़सर के भेजे छायाचित्र में देखा था। दृश्य जितना परिचित है उतना ही अजनबी। ट्रेन से उतरकर लग रहा है जैसे मैं एक बड़ा-सा संदूक लिए स्टेशन की जगह उसके छायाचित्र में दाखि़ल हो गया हूं। छायाचित्र की अजनबी भीड़ में प्रोफ़ेसर की जानी पहचानी आवाज़ सुनायी दी। मैंने अभिवादन किया और हम दोनों छायाचित्र में प्रदर्शित लोहे का पुल पार कर स्टेशन के बाहर आ गए। प्रोफ़ेसर ने यात्रा का हाल पूछा और हमारे इंतज़ार में खड़ी सफे़द एम्बेसडर  में बैठने का इशारा किया। ड्राइवर ने प्रोफ़ेसर का ट्रंक डिक्की में रखा और कार स्टार्ट की।

जल्दी ही हमारी कार ने एक पतली और सुनसान सड़क पकड़ ली। सड़क के दोनों ओर उसी पीली सरसों का विस्तार था जिसे कुछ घंटों पहले मैं चम्बल की घाटियों में देख रहा था। प्रायः कम बोलने वाले प्रोफ़ेसर की ज़ुबान पर आज चम्बल की कहानियां ब्रेक लेने को तैयार नहीं थीं और मेरे कानों की प्यास भी बढ़ती ही जा रही थी..। प्रोफ़ेसर बता रहे थे कि उन्होंने एनी जै़दी की किताब ‘नोन टर्फ’ में चम्बल के डाकुओं की कहानियां लिखने वाले जिस पॉपुलर नॉविलिस्ट मनमोहन कुमार तमन्ना का ज़िक्र पढ़ा था, उसका पता मिल गया है। प्रोफ़ेसर के मुताबिक यह उनके प्रोजेक्ट की दिशा में एक अहम क़ामयाबी है..। मैंने पूछा कि हम अभी कहां जाने वाले हैं तो प्रोफ़ेसर ने एक अजीबोगरीब जगह का नाम बताया ‘पगारा डेम’। उन्होंने बताया कि यह उस बांध का नाम है जहां बिनोवा भावे और जयप्रकाश नारायण के आव्हान पर अनेक डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था। बहुत सुन्दर जगह है। कुछ दिन वे यहीं बिताने वाले हैं..।

[ to be continued..]

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3/ ‘प्रोफ़ेसर की प्रेमिका’ से मुलाक़ात

प्रोफ़ेसर से कल रात स्काइप पर लम्बी बात हुई। वे अपने नये प्रोजेक्ट को लेकर संजीदा होते जा रहे हैं। वे युनिवर्सिटी से तीन दिन की छुट्टी लेकर गए थे लेकिन अब छुट्टी बढ़ाना चाहते हैं। चम्बल के बीहड़ उनकी अपेक्षा से अधिक अनुसंधान की मांग करते हैं। भारतीय राजनेताओं और अनुसंधानकर्ताओं ने इस क्षेत्र की समस्याओं की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया है। वे देश-विदेश में फैले अपने अनुसंधानकर्ता मित्रों का ध्यान इस क्षेत्र की ओर खींचना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें अपने उसी कम्युनिकेशन-सिस्टम की ज़रूरत पड़ेगी जो उनके अध्ययन-कक्ष में इन्स्टॉल है। उन्होंने आग्रह किया है कि मैं दो दिन के लिए उनके पास आ सकूं तो वे इस ओर पहल करें। मेरे हां कहने पर उन्होंने मुझे विस्तार से आने और आने से पहले की प्लानिंग समझा दी है।

प्लानिंग के मुताबिक सबसे पहले मुझे उनकी एक प्रेमिका से मिलना होगा। यह सोचकर मैं बहुत रोमांचित हूं कि प्रोफ़ेसर की कोई प्रेमिका भी है और उन्होंने बड़े सहज ढंग से मुझे बता भी दिया। आगे का सारा काम उन्होंने प्रेमिका को समझा दिया है। मुझे बस प्रोफे़सर के फ्लैट से एक ट्रंक लेकर उनके द्वारा बुक किए गए टिकिट पर मुरैना स्टेशन पहुंचना है। वहां से प्रोफ़ेसर मेरे साथ रहेंगे। तकरीबन 5 घंटे की यात्रा के सारे विवरण उन्होंने मुझे समझा दिए हैं और अपनी यात्रा के कुछ चित्र भी भेज दिए हैं ताकि यात्रा सुविधाजनक रहे। इन चित्रों में सबसे अहम है मुरैना स्टेशन का चित्र ताकि मैं स्टेशन को ठीक से पहचान लूं क्योंकि यहां ट्रेन बहुत थोड़ी देर के लिए ही रुकती है।

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प्रोफ़ेसर के मुताबिक अभी तक उनकी प्रेमिका का फ़ोन आ जाना चाहिए था। मैं इसी ख़याल से कि थोड़ी चहल-क़दमी हो जाएगी, अपने अपार्टमेंट से बाहर आकर प्रोफ़ेसर के अपार्टमेंट की ओर निकल गया। अपार्टमेंट के बाहर एक छोटा सा पार्क है। सुंदर फूलों से सजा हुआ। ख़ासकर गुलाब की क्यारियां तो देखते ही बनती हैं। मैं एक बेंच पर बैठ गया जहां अच्छी धूप आ रही थी।सर्दियों की धूप का मज़ा ही अलग होता है। गुलाब की क्यारियां देखते-देखते धूप भी गुलाबी होने लगी है। इस गुनगुनी गुलाबी रंगत वाली धूप को भीतर समो लेने के लिए मैंने अपनी आंखें बंद कर लीं। पता ही नहीं चला कब झपकी आ गयी। दुबारा पलकें खुलीं तो मोबाइल देखा। फ़ोन अभी तक नहीं आया था। यह सोचकर कि शायद नेटवर्क की अड़चन से फ़ोन नहीं लग रहा हो, मैंने प्रोफ़ेसर के फ्लैट के लिए लिफ्ट ले ली।

बैल बजाई तो फ्लैट का दरवाज़ा खुला। मैं एक बारगी ठिठक-सा गया। मैंने ख़ुद से ही कहा-ओ माई गोड, शी इज़ सो ब्यूटीफुल। ‘प्लीज़ कम’। मैं उनके पीछे हो लिया। मैं फिर उसी अध्ययन-कक्ष में पहुंच गया लेकिन इस बार वो बात नहीं थी। वे विशाल डिजिटल स्क्रीन्स अब वहां नहीं हैं। कमरे की दीवारें सूनी हैं। लेकिन अध्ययन-कक्ष की मेज़ वैसी की वैसी है। पिछली बार जिस कुर्सी पर प्रोफ़ेसर थे, इस बार उनकी प्रेमिका है। मैंने ध्यान से देखा। गुलाबी रंगत से खिला चेहरा। शार्प फीचर्स। नाक पर हीरे का दमकता फूल।डी एंड जी सनग्लासेज़ के आकर्षक फ्रेम से झांकती सम्मोहक आंखें। धनुषाकार भंवें। कानों की लवों से झूलतीं सोने की बड़ी-बडी बालियां। शायद मैं ठीक से कह नहीं पा रहा। अगर कालिदास होता तो अवश्य कोई छंद रचता। सच कहूंगा इतनी सुंदर स्त्री मैंने पहले कभी नहीं देखी। उन्होंने कहा-कॉफी? मैंने कहा-स्योर।

कुर्सी छोड़कर वे कॉफी-मेकर की ओर मुडीं। मैंने फिर देखा। उनके रेशमी केश गर्दन तक बंधे हुए मग़र सिरों पर खुले हुए। बंध-स्थल पर सुशोभित सूरजमुखी का फूल। क्रोसिए पर बुने कत्थई स्वेटर में कंधों के उभार। सिर से पैरों तक सांचे में ढला फिगर…प्रोफ़ेसर इस सो लकी। वे कॉफी लेकर लौटीं तो मैंने पूछा- आर यू ऑल्सो ए प्रोफ़ेसर? कानों में रस घोलती हंसी के बाद उन्होंने कहा-अरे नहीं, आइ एम ए पोइट, जस्ट ए पोइट। आई वुड लव टू रीड योर पोइम्स। मैंने कहा। व्हाइ नोट? उन्होंने एक स्टूल का दराज़ खोला और अपनी सुंदर उंगलियों से हस्ताक्षरित अपने संग्रह की एक प्रति मुझे भेंट की। संग्रह का टाइटल देखकर मैं चौंका-‘ बैंडिट क्वीन्स ’। फिर मिलने और संग्रह पर प्रतिक्रिया देने का वादा कर मैंने इजाज़त चाही। उन्होंने लोहे का ट्रंक जो मेरी अपेक्षा से हल्का ही था, सौंपते हुए कहा-से माई लव टू प्रोफ़ेसर। स्योर। मैंने एक बार फिर उनके सम्मोहक चेहरे को देखा। अभिभूत कर देने वाला सौंदर्य। बेहद शालीन और बौद्धिक मुस्कान के साथ उन्होंने हाथ हिलाया। मैंने अभिवादन किया और लिफ्ट की राह पकड़ी।

[to be continued..]

2/ प्रोफ़ेसर का नया प्रोजेक्ट

कई दिनों से प्रोफ़ेसर की कोई ख़बर नहीं मिली। पिछली बार उनके अध्ययन-कक्ष में जिस प्रोजेक्ट की स्लाइड्स देखी थीं, वे अभी तक मेरी आंखों के सामने घूम रही हैं। उस प्रोजेक्ट के बारे में आगे जानने की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। कई बार उनके घर के चक्कर लगा आया। उन्हें ई-मेल भी किया मग़र उनका जवाब नहीं आया। यह कितनी अजीब बात है कि मिस्टर प्रोफ़ेसर संचार-प्रणाली की तमाम अत्याधुनिक सुविधाओं का उपयोग करते हैं लेकिन मोबाइल फ़ोन नहीं रखते। मोबाइल के बारे में उनका मानना है कि यह एक ‘क्लैवर हैकर’ है जिसने लोगों की प्राइवेट लाइफ़ को बुरी तरह हैक़ कर रखा है और वे इस बदमाश हैकर के झांसे में आने वाले नहीं।

उनसे संपर्क का एक ही जरिया है उनका ई-मेल। हांलाकि वे स्काइप और हैंग-आउट जैसी सुविधाओं का भी बख़ूबी प्रयोग करते हैं लेकिन इन दिनों वहां भी नहीं दिखे। इन-बॉक्स देखता हूं शायद कोई क़ामयाबी मिले। लीजिए, उनका मेल आ ही गया। अरे, कुछ अटैचमेंट भी है। देखूं, क्या भेजा है। किसी फटी-पुरानी किताब के पन्ने मालूम होते हैं। पिछली मुलाक़ात में प्रोफ़ेसर ने बताया था कि वे चम्बल के बीहड़ों की छान-बीन करने का इरादा रखते हैं।

वे शेखर कपूर की फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ से बहुत प्रभावित थे। लेकिन उन्हें धूलिया की फ़िल्म पानसिंह तोमर कुछ ख़ास पसंद नहीं आयी थी। उनका मानना था कि पानसिंह तोमर से ज़्यादा ग्लैमरस और बिल्कुल आज के दौर की सेंसिबिलिटीज़ से कनेक्ट करने वाला डाकू है ‘डाकू अमृतलाल’। उन्होंने बताया था कि चम्बल में डाकू अमृतलाल के कारनामों का अलग ही जलवा रहा है। अपने दौर में वह ‘दिल्ली वाला बाबू’ नाम से मशहूर था। वह पुलिस का भेस बदलकर बड़े-बड़े अधिकारियों को चकमा देने में माहिर था। चम्बल का यह अकेला डाकू था जिसने बीहड़ के बाहर की मेट्रोपोलिस रंगीनियों के जमकर मज़े उड़ाये था। आज के दौर की फ़िल्म के लिए वह एक कम्प्लीट मसाला-क़िरदार है।

प्रोफ़ेसर ने यह भी बताया था कि वह एक फ़िल्म की स्क्रिप्ट के लिए अमृतलाल की ज़िदगी पर रिसर्च करने का इरादा रखते हैं और कुछ काम उन्होंने कर भी लिया है। काम पूरा होने पर वे किसी व्यावसायिक पटकथा-लेखक को एप्रोच करेंगे। उन्होंने उस स्लाइड-शो में उस दिन अमृतलाल के दौर की कुछ न्यूज़पेपर कटिंग्स भी दिखाई थीं। उनका यह नया प्रोजेक्ट वाक़ई रोमांचक जान पड़ता है।

सारे पन्ने डाउनलोड कर लिए हैं। अब इन्हें किसी फोटो-एडीटर पर चमकाकर पढ़ने योग्य भी बनाना होगा। लेकिन इस फटी-पुरानी किताब के लेखक का नाम नहीं दिखाई दे रहा कहीं। प्रोफ़ेसर से पूछने पर उनका जवाब आ रहा है कि यह किताब उन्हें मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में स्थित छोटे से क़स्बे कोलारस के एक हलवाई की दुकान से मिली है.. किताब के शुरु और आखि़र के पन्ने ग़ायब हैं..सो फिलहाल तो नाम नहीं है, लेकिन जल्दी ही कोई न कोई सुराग मिल जाएगा..।

बहरहाल,

डाकू अमृतलाल के कुछ कारनामे…

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1/ प्रोफ़ेसर का अध्ययन-कक्ष

यह एक सर्द शाम थी। पढ़ते-पढ़ते मन उब गया तो बाहर सड़क पर निकल आया। सूर्य अभी पूरी तरह डूबा नहीं था, फिर भी सड़क किनारे के लैंप-पोस्ट जल चुके थे। एक वीरानी सी थी चारों ओर। इक्का दुक्का लोग ही रास्ते पर दिखाई दे रहे थे। मन पहले से ही थका हुआ था, उपर से एक अजीब सी ख़ामोशी माहौल को बोझिल बना रही थी। मैंने अपना आई पोड ऑन किया। इससे पहले कि ईयर-फ़ोन कानों में लगाता एक कार की आवाज़ नज़दीक आते -आते रुक गयी। विंड-सक्रीन के अंदर झांका- ओह..मिस्टर प्रोफ़ेसर। मैंने अभिवादन किया-हैलो मि. प्रोफ़ेसर। जवाब में उन्होंने कहा- कम, इफ यू आर फ्री। मैं उनके साथ हो लिया। पिछले हफ्ते एक बुक-लांच पर उनसे भेंट हुयी थी। उन्होंने बताया था कि उनकी भी एक किताब आने वाली है। मैंने पूछा तो बोले-छोड़ो किताब को, तुम्हें एक नयी चीज़ दिखाता हूं। उन्होंने कार पार्क की और अपने अपार्टमेंट में ले गए।

प्रोफ़ेसर की पूरी शख़्सियत में अजीब-सी कशिश है। वे हमेशा ही तरो-ताज़ा और किसी धुन में डूबे मालूम होते हैं।  उनका कोट, उनका मफ़लर, उनका चश्मा, उनके बिख़रे बाल और थोड़ा बेपरवाह मिजाज़, सब मिलकर उनके व्यक्तित्व को भव्य बना रहे हैं। आमतौर पर मिस्टर प्रोफ़ेसर बहुत कम बोलते हैं लेकिन जो भी बोलते हैं बहुत मार्के का। लिफ्ट में उन्होंने एक सूत्र-वाक्य जैसा कहा-लिफ्ट गतिशील होती है फिर भी हमें स्थिर बना देती है जबकि सीढ़ियां स्थिर होने पर भी हमें गतिशील बनाए रखती हैं। मैं तब तक इस वाक्य पर सोचता रहा जब तक उन्होंने फ्लैट का दरवाज़ा नहीं खोल दिया। मेरे लिए यह वाक्य किसी क्लास-नोट से कम नहीं था…।

 फ्लैट में दाख़िल होते ही सामने एक बड़ा-सा सीसे का दरवाज़ा दिखा जो हमारे प्रवेश करते ही स्वतः खुल गया। भीतर का दृश्य देखकर मैं अनोखे आश्चर्य से भर गया। होंट ख़ुद-ब-ख़ुद कह उठे ‘वाह’। मैंने बहुत अध्ययन-कक्ष देखे थे लेकिन यह तो नायाब ही था। हमने जिस दरवाज़े से प्रवेश किया था वो बंद होते ही एक विशाल डिस्प्ले में बदल गया जिस पर कोई ई-बुक स्क्रॉल होने के लिए तैयार थी। इसके ठीक सामने की दीवार एक विशाल बुक-रैक थी जिसमें दुनिया भर की किताबों का जमावड़ा था। बाएं और दाएं तरफ़ की दीवारों पर भी डिजिटल डिस्प्ले थे। एक डिस्पले में किसी फ़िल्म का दृश्य पॉज़ पर था। दूसरे डिस्पले में एक म्यूज़िक प्लेयर बहुत धीमी आवाज़ में कोई यूरोपियन सिंफनी बजा रहा था। प्रोफ़ेसर ने कमर तक उंचाई और हाथ भर चौड़ाई वाली एक दराज़युक्त टेबल पर रखे कॉफ़ी-मेकर से कॉफी निकाली और बग़ैर किसी औपचारिकता के कप मेरी ओर बढ़ा दिया और बैठने का इशारा किया। प्रोफे़सर ने बड़े इतमीनान से एक सिप लिया और कप मेज़ पर रख दिया। मैंने भी वैसा ही किया।

अध्ययन-कक्ष की दीवारों की तरह मुझे मेज़ ने भी विस्मित किया। मैंने प्रोफ़ेसर से कहा कि ऐसी मेज़ मैने पहले कभी नहीं देखी। प्रोफ़ेसर ने बताया कि दरअसल यह दो राइटिंग डेस्क और एक डायनिंग टेबल को सिर्फ़ पास-पास रख देने से बनी है; मैं अपनी ज़रूरत के मुताबिक इनका इस्तेमाल करता हूं। इस तरह किसी को डिनर पे बुलाना हो, लिखने का काम करना हो या किसी समूह या समिति को अपना काम दिखाना हो, सब यहां संभव है। यहां तक कि कुछ सीमित ऑडिएन्स वाली कॅान्फ्रेंस और सेमिनार भी मैंने आयोजित किए हैं। ऐसे में ये स्टूल बहुत काम आते हैं। उन्होंने हाथ के इशारे से बताया।  ओह, तो जिसे मैं कमरे की तीनों दीवारों के आधारों पर किया गया वुड-वर्क समझ रहा था वो बहुत सारे स्टूल थे जो आपस में सटाकर रखे गए थे। अनेक स्टूलों पर खुली हुयी किताबें रखी थीं अपनी आंखों का इन्तज़ार करती हुईं। हर स्टूल में दो दराजे़ं  थीं। इन्हीं दराज़ों की वजह से मुझे वुड-वर्क का भ्रम हुआ था। मैं प्रोफ़ेसर की सादगी और मेधा का कायल हो गया। मैंने सम्मान में सिर झुका दिया-हैट्स ऑफ टू यू सर। प्रोफ़ेसर ने शुक्रिया कहा और हंसे-तुम्हें ये मज़ाक लगेगा लेकिन अगर मैं इन सारे स्टूलों को मिला दूं तो यह स्टडी-रूम एक आईडियल बेड-रूम में भी बदल सकता है। मेरी कल्पना को एक और झटका लगा।

प्रोफ़ेसर ने कॉफी ख़त्म की और अपना लैपटॉप ऑन करते हुए बोले- अब मैं तुम्हें उस चीज़ के बारे में बताने जा रहा हूं जिसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया था। लैपटॉप की स्क्रीन सामने की दीवार पर डिस्प्ले हो गयी जिस पर अभी तक किसी फ़िल्म का दृश्य रुका था। वे हाथ के इशारे से अनेक स्लाइडों को आगे-पीछे और ज़ूम इन-ज़ूम आउट करते रहे। बहुत देर तक मैं उनके नये काम को समझता रहा और मन ही मन चमत्कृत होता रहा। स्लाइडों का यह जादू भरा संसार सिमटते ही मैंने उनसे आग्रह किया कि मैं उनसे अक्सर मिलते रहना चाहता हूं और उनके बारे में एक ब्लॉग भी लिखना चाहता हूं। उन्होंने सहज ही इजाज़त दे दी। प्रोफ़ेसर ने घड़ी देखी। डिनर का वक़्त हो चला था। उन्होंने भोजन का आग्रह किया जिसे मैंने विनम्रता से टाल दिया और फिर मिलने का वादा कर घर की ओर लौट आया…।

[to be continued..]