समय: 7.15 प्रात:
स्टेशन : हज़रत निज़ामुदीन, दिल्ली
ट्रेन : ताज एक्सप्रेस
सीट नं. 18, चेयर कार
स्टेशन का वही चिर-परिचित दृश्य। सामान ढोते कुली। अपनी सीट खोजते यात्री। रेलों के आने-जाने की एनाउन्समेंट। हर तरफ़ चहल-पहल। चेतना में यह दृश्य इतना स्थायी हो गया है कि लगता ही नहीं कि कभी वो दिन भी रहे होंगे जब न ये ट्रेनें थीं न ये स्टेशन। इंजिन ने आवाज़ दी और ट्रेन चल पड़ी। मन पर चम्बल की कल्पना इस क़दर हावी थी कि एक पल को तो लगा जैसे मैं ट्रेन में नहीं नाव में बैठा हूं। लेकिन दूसरे ही पल अपने इस खयाल पर मुझे हंसी भी आ गयी। हांलाकि अब डाकुओं की ख़ूनी रंजिशों और पुलिस की मुटभेड़ों का दौर नहीं रहा, फिर भी चम्बल के बारे में नौका-विहार जैसे रोमानी ख़्याल की कल्पना एक ख़ौफ़ भरा ख़याल ही है। जो भी हो, प्रोफ़ेसर की तरह मुझे भी इस उधेड़बुन से एक सूत्र मिल गया है-खौफ़ और रोमान्स दोनों ही एक अनिश्चय भरे आकर्षण को जन्म देते हैं।
आकर्षण से प्रोफ़ेसर की प्रेमिका की याद आ गयी। प्रोफ़ेसर के अध्ययन-कक्ष में हस्ताक्षर करती उनकी उंगलियां सचमुच आकर्षक थीं। बैग से उनका कविता-संग्रह निकाला। इस ख़याल से कि मैंने उन्हें कहा था कि उनकी कविताओं पर प्रतिक्रियां दूंगा, मैं कुछ कविताएं पढ़ने लगा। कविताएं पुरुषों के समाज में अन्याय की शिकार औरतों के प्रतिरोध से भरी थीं। पढ़ते-पढ़ते एक कविता पर आंख ठहर गयी। कविता बैंडिट क्वीन’ फूलन देवी को उसके गांव में निर्वस्त्र घुमाए जाने की घटना पर केन्द्रित थी। कविता में इस तर्क को अत्यंत बारीक़ी से स्थापित किया गया था कि पितृसत्ता के पास स्त्री के लिए सबसे कठोर सज़ा है उसको सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर देना। कविता में फूलन देवी के निर्वस्त्र किए जाने को द्रौपदी के चीर-हरण से जोड़कर देखा गया था। कविता के अन्त में फूलन देवी के गांव का समाज कौरवों की सभा में बदल रहा है और फूलन देवी द्रौपदी के रूप में बन्दूक उठाए चम्बल के किनारे खड़ी है। यह जानकर मेरा मन एक ख़ास तरह के आदर-भाव से भर गया कि प्रोफ़ेसर की प्रेमिका जितनी सुन्दर है उतनी ही बौद्धिक और संवेदनशील भी।
ट्रेन पहले हरियाणा में दाख़िल हुई, फिर उत्तरप्रदेश में और फिर राजस्थान में। किसी ने बताया कि धौलपुर आने वाला है। मैंने अपना कैमरा तैयार किया और बोगी के दरवाजे़ पर आ गया। जैसा कि प्रोफ़ेसर ने संकेत किया था, धौलपुर क्रोस होते ही चम्बल के ख़तरनाक़ बीहड़ शुरु होने लगे थे। जहां तक नज़र की पहुंच थी मिट्टी के विशाल ढूहों का अनन्त क्रम..। मैंने धड़ाधड़ तस्वीरें लेना शुरू कर दिया। दूर तक धूप में चिलकते चम्बल के ये ढूह किसी खोई हुई सभ्यता का पता देते से मालूम पड़ते थे। मिट्टी के पोर-पोर में धंसी धूप इतनी पारदर्शी और स्निग्ध थी कि हवा आराम से सांस ले रही थी।
थोड़ी ही देर में चम्बल नदी का विशाल पाट दिखाई देने लगा था। दोनों किनारों पर फैला आसमानी जल। स्थिर और स्तब्ध। नदी में पानी बहुत नहीं था। जहां तक था उससे आगे की ज़मीन पर खेती हो रही थी। ज़मीन के कुछ हिस्सों पर पीली सरसों का सुन्दर विस्तार था। कुछ हिस्सों की जुताई हो चुकी थी और बीज बोए जाने के लिए तैयार थे। मिट्टी के धूसर टीलों में पसरी वीरानी के बीच नदी का आसमानी जल और संरसों का यह पीलापन मुझ पर एक जादुई फैंटेसी की तरह खुल रहा था। दूर एक छोटा सा मंदिर दिखाई दे रहा था जिसकी लाल पताका किसी रहस्यमय आमंत्रण का संकेत जान पड़ रही थी। पूरा परिदृश्य एक विचित्र से आकर्षण में बांध रहा था। दिल ने चाहा कि ट्रेन की चेन खींच दूं और दौड़कर इन बीहड़ों की भूल-भुलैया में ओझल हो जाउं। मग़र डाकू। डाकुओं की बंदूक के ख़ौफ़ ने चम्बल और उसके बीहड़ों का आकर्षण धूल में मिला दिया।
चम्बल नदी क्रोस करने के बाद 10 मिनिट बीत चुके हैं। प्रोफ़ेसर के मुताबिक मुझे अपने ट्रंक के साथ बोगी के दरवाज़े पर होना चाहिए। दरवाजे़ के पीले हैंडिल पकड़कर देख रहा हूं कि मुरेना स्टेशन का दृश्य हूबहू वैसा ही है जैसा प्रोफे़सर के भेजे छायाचित्र में देखा था। दृश्य जितना परिचित है उतना ही अजनबी। ट्रेन से उतरकर लग रहा है जैसे मैं एक बड़ा-सा संदूक लिए स्टेशन की जगह उसके छायाचित्र में दाखि़ल हो गया हूं। छायाचित्र की अजनबी भीड़ में प्रोफ़ेसर की जानी पहचानी आवाज़ सुनायी दी। मैंने अभिवादन किया और हम दोनों छायाचित्र में प्रदर्शित लोहे का पुल पार कर स्टेशन के बाहर आ गए। प्रोफ़ेसर ने यात्रा का हाल पूछा और हमारे इंतज़ार में खड़ी सफे़द एम्बेसडर में बैठने का इशारा किया। ड्राइवर ने प्रोफ़ेसर का ट्रंक डिक्की में रखा और कार स्टार्ट की।
जल्दी ही हमारी कार ने एक पतली और सुनसान सड़क पकड़ ली। सड़क के दोनों ओर उसी पीली सरसों का विस्तार था जिसे कुछ घंटों पहले मैं चम्बल की घाटियों में देख रहा था। प्रायः कम बोलने वाले प्रोफ़ेसर की ज़ुबान पर आज चम्बल की कहानियां ब्रेक लेने को तैयार नहीं थीं और मेरे कानों की प्यास भी बढ़ती ही जा रही थी..। प्रोफ़ेसर बता रहे थे कि उन्होंने एनी जै़दी की किताब ‘नोन टर्फ’ में चम्बल के डाकुओं की कहानियां लिखने वाले जिस पॉपुलर नॉविलिस्ट मनमोहन कुमार तमन्ना का ज़िक्र पढ़ा था, उसका पता मिल गया है। प्रोफ़ेसर के मुताबिक यह उनके प्रोजेक्ट की दिशा में एक अहम क़ामयाबी है..। मैंने पूछा कि हम अभी कहां जाने वाले हैं तो प्रोफ़ेसर ने एक अजीबोगरीब जगह का नाम बताया ‘पगारा डेम’। उन्होंने बताया कि यह उस बांध का नाम है जहां बिनोवा भावे और जयप्रकाश नारायण के आव्हान पर अनेक डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था। बहुत सुन्दर जगह है। कुछ दिन वे यहीं बिताने वाले हैं..।
[ to be continued..]